भगवान श्री कृष्ण जब द्वारका में थे तो अक्सर अपने ब्रज के भक्तों को याद करते थे। ये बात उनकी रानियों ने जान ली थी। उनकी बहुत इच्छा थी यह जानने की कि भगवान ब्रज-वासियों को क्यों इतना याद करते हैं ? क्या रानियों की सेवा में किसी प्रकार की कमी है ? इत्यादि।
एक दिन सभी ने मिल कर रोहिणी मां को घेर लिया व कहा की हमें ब्रज और ब्रज लीलाओं के बारे में सुनाइए। माता ने कहा की कृष्ण ने मना किया है। रानियों ने कहा की अभी तो वे यहां नहीं हैं, फिर वह द्वार पर सुभद्रा को बिठा देती हैं, अगर वे आते दिखेंगे तो वे हमें इशारे से बता देंगी और हम सब कुछ और विषय पर बातें करने लग जाएंगी। बहुत अनुनय-विनय करने पर माता रोहिणी मान गईं।
कक्ष के द्वार पर सुभद्रा जी को बिठा दिया गया और सब अंदर रोहिणी माता से ब्रज-लीलाएं सुनने लगीं। सुभद्रा जी भी कान लगा कर सुनने लगी और लीला सुनने में ही मस्त हो गई। उनको पता ही नहीं चला की कब भगवान श्रीकृष्ण और दाऊ बलराम उनके दोनों ओर आकर बैठ गए हैं और वे भी लीला श्रवण का रसास्वादन कर रहे हैं।
{ भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी जब श्रीकृष्ण प्रेम में मग्न, श्रीकृष्ण लीलाओं का रसास्वादन करते थे तो आपने कई बार प्रेम के अष्ट-सात्विक विकार प्रकट करने की लीला भी की, यह बताने के लिए की कृष्ण प्रेम की ऊंचाई पर ऐसे विकार भी शरीर में आ सकते हैं जैसे बाहें शरीर के भीतर चली जाती हैं, आंखें फैल जाती हैं, आंखों में आंसुओं की धाराएं बहती हैं, सारा शरीर पुलकायमान हो जाता है इत्यादि। कभी-कभी सभी विकार आ सकते हैं और कभी-कभी कुछ विकार }
ऐसी ही लीला भगवान श्रीकृष्ण, श्रीबलराम व श्रीमती सुभद्रा जी ने भी की। आपके दिव्य शरीर में लीलाओं के श्रवण से अद्भुत विकार आने लगे। आपकी आंखे फैल गई, बांहे, चरण अंदर चले गए इत्यादि।

भगवान की इच्छा से श्री नारद जी उस समय द्वारका के इस महल के आगे से निकले। उन्होंने भगवान का ऐसा रूप देखा, किंतु आगे निकल गए। कुछ आगे जाकर सोचा की यह मैंने क्या देखा अद्भुत दृश्य। फिर वापिस आए। सारी बात को समझा।
उधर रोहिणी माता को पता चल गया की कोई बाहर है। उन्होंने लीला सुनाना बंद कर दिया। भगवान वापिस अपने रूप में आ गए। नारद जी को सामने खड़ा देख पूछा, ‘आप कैसे आए ?’
नारद जी ने कहा, ‘ भगवन ! वो मैं बाद में बताऊंगा। किन्तु जो मैंने ये आप सब का अद्भुत भावमय रूप देखा है, वो रूप में आप सभी को दर्शन दें, ऐसी मेरी आपसे विनीत प्रार्थना है।’
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, ‘ ऐसा ही हो। ‘
भगवान श्रीकृष्ण, श्रीबलराम, श्रीमती सुभद्रा का वही भावमय रूप ही श्री जगन्नाथ पुरी धाम में श्री जगन्नाथ, श्री बलदेव व श्रीमती सुभद्र बन कर प्रकट हैं। भारत के पुरी धाम में श्री जगन्नाथ देव जी स्वयं पुरुषोत्तम हैं। आपने दारु-ब्रह्म रूप से नीलाचल (जगन्नाथपुरी धाम) में कृपा पूर्वक आविर्भूत होकर, जगत-वासियों पर कृपा की।
श्रीजगन्नाथ जी किसी के भी दृश्य नहीं हैं, आप सभी के द्रष्टा हैं। श्रीजगन्नाथ जी स्वयंभू अर्थात स्वयं प्रकाशित हैं। आप पूर्ण चेतन हैं। श्रीचैतन्य महाप्रभु जी आपको श्यामसुंदर, वंशीवदन के रूप में दर्शन करते हैँ।
दुनियावी मनुष्य का दर्शन भोगमय होता है इसलिए हमें श्रीजगन्नाथ देव के दर्शन काष्ठ (लकड़ी) के होते हैं। भजन की उन्नत अवस्था में आपके हमें काष्ठ (लकड़ी) के दर्शन नहीं होंगे। उन्नत स्थिति में श्रीमन महाप्रभु जी जिस प्रकार श्रीजगन्नाथ जी को वंशी बजाते हुए श्यामसुन्दर जी के रूप में दर्शन किया करते थे, उसी प्रकार हम भी कर पाएंगे। जो जिस प्रकार देखना चाहता है, श्रीजगन्नाथ जी भी उसको उसी प्रकार दर्शन देते हैं। अप्राकृत (दिव्य) दृष्टि से ही अप्राकृत वस्तु का दर्शन होता है।
‘मैं देखने वाला हूं’ ऐसा अभिमान रहने से श्रीजगन्नाथ जी का दर्शन नहीं होता। भोग के लिए उन्मुख होकर या भोगमय नेत्रों से भगवान का दर्शन नहीं होता। सेवोन्मुख (सेवा के लिए उत्कण्ठित) दर्शन से ही वास्तविक दर्शन होता है। भगवान भोक्ता हैं, मैं उनका दास हूं और मैं उनके द्वारा ही भोग्य हूं यही भक्तों के भगवद दर्शन का विचार है।
मैं अपनी चेष्टा से गुरु वैष्णव व भगवान को जान लूंगा, उन्हें देख लूंगा ऐसी बुद्धि दिव्य ज्ञान के उदय होने पर ही दूर होती है। जैसे श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर भगवान श्रीकृष्ण, श्रीराम नवमी पर भगवान श्रीराम, श्रीगौर पूर्णिमा पर भगवन श्रीगौरसुन्दर का जन्म (प्राकट्य) हुआ था उसी प्रकार स्नान यात्रा के दिन भगवान जगन्नाथ जी का प्राकट्य हुआ था अर्थात भगवान जगन्नाथ जी स्नान यात्रा के दिन ही इस धरातल पर प्रकट हुए थे।
(श्रीचैतन्य गौड़िया मठ की ओर से श्री भक्ति विचार विष्णु जी महाराज)
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