अर्जुन राम मेघवाल
केंद्रीय विधि एवं न्याय राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) एवं संसदीय कार्य राज्य मंत्री, भारत सरकार
पचास वर्ष पूर्व, 25 जून 1975 का दिन भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण दिन था जब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की तानाशाही सरकार ने आंतरिक अशांति का बहाना बनाकर देश में आपातकाल की घोषणा की, जिसने देश के संविधान की आत्मा को कुचल कर रख दिया। इसके बाद देश में आपातकाल के 21 महीनों ने भारतवासियों की लोकतंत्र, सरकार और संवैधानिक विरासत की समझ को पूरी तरह से झकझोर कर रख दिया। यह वह क्षण था जब “लोकतंत्र की जननी” कहे जाने वाले भारत को तत्कालीन तानाशाही सरकार के अविवेकपूर्ण और क्रूर निर्णय से शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने श्रीमती गांधी को 1971 के लोकसभा चुनाव में गड़बड़ी करने का दोषी ठहराते हुए उनका लोकसभा के लिए निर्वाचन अमान्य घोषित कर दिया था। इसके बाद श्रीमती गांधी के इस्तीफे की मांग बढ़ती गई और इसी बीच इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 की रात तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को एक सादे कागज पर (बिना कैबिनेट की सहमति और आधिकारिक लेटरहेड के) अनुच्छेद 352 के तहत “आंतरिक अशांति” के आधार पर देश में आपातकाल लागू करने की सिफारिश कर दी। यह देश की संवैधानिक शासन व्यवस्था पर सीधा प्रहार था। अगले दिन 26 जून 1975 को सुबह 6 बजे कैबिनेट की बैठक में यह विषय औपचारिक रूप से प्रस्तुत किया गया।
इस कदम से देश में कांग्रेस के तानाशाही शासन की शुरुआत हुई। जनता को संविधान से मिली आजादी रातों-रात समाप्त कर दी गई। अनुच्छेद 19 के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संगठन बनाने और देश के भीतर आने-जाने की स्वतंत्रता एक झटके में खत्म कर दी गई। जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी देने वाला अनुच्छेद 21 निरर्थक हो गया। सबसे दुखद यह था कि बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान के जिस अनुच्छेद 32-जो नागरिकों को न्यायालय जाने का अधिकार देता है— को संविधान की “आत्मा” कहा था, उसे भी निरस्त कर दिया गया। आपातकाल के दमनचक्र के पहले शिकार वे विपक्षी नेता बने जिन्होंने सरकार की नीतियों का विरोध किया था। हजारों लोगों को कठोर मीसा(मेंटिनेंस ऑफ इंटरनल सेक्युरिटी एक्ट) और भारत रक्षा अधिनियम (डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट) के तहत जेल में डाला गया, इसके बाद धीरे-धीरे देश का हर नागरिक देश पर थोपे गए आपातकाल के इस काले अध्याय के घावों का अनुभव करने लगा था।
इस कालखंड में देश की लोकतात्रिंक व्यवस्था के तीन स्तंभ कहे जाने वाले कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका पर अभूतपूर्व हमला हुआ। इंदिरा गांधी की तानाशाही सरकार के अविवेकपूर्ण निर्णयों के दंश आज भी देश की जनता के मानस पटल पर एक भयावह स्मृति के रूप में अंकित हैं। मेरे 90 वर्षीय दादा जी को उसी दौर में अपने रोज़मर्रा के काम के दौरान गायों की देखभाल करते हुए ऊंगली में गहरी चोट लग गई थी जिसके इलाज के लिए उन्हें बीकानेर के पीबीएम अस्पताल में भर्ती कराया गया। लेकिन अस्पताल में उन्हें पता चला कि नसबंदी लक्ष्यों को पूरा करने के सरकारी दबाव के चलते डॉक्टर उन्हें जबरदस्ती नसबंदी के लिए तैयार कर रहे हैं। इस अमानवीय स्थिति को भांपते हुए मेरे दादा जी अस्पताल से भाग निकले और बिना इलाज के वापस लौट गए। इस प्रकार जनता को स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने वाले अस्पताल भयावह कष्ट देने वाले केन्द्र के रूप में बदल गए थे। हालांकि वे बच गए, लेकिन उस भयावह अनुभव ने पूरे समुदाय को गहरे डर और सदमे से भर दिया था। दुर्भाग्यवश 1975 से 1977 के बीच एक करोड़ से अधिक लोगों की जबरन नसबंदी करा दी गई- यह भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का सबसे शर्मनाक अध्याय बन गया।
उस काले दौर में प्रशासनिक तंत्र का दुरुपयोग केवल एक परिवार के हित में किस हद तक किया गया, इसका सबसे बड़ा उदाहरण 24 मार्च 1976 को संजय गांधी की बीकानेर यात्रा थी। न तो उनके पास कोई संवैधानिक पद था, न ही वे राजकीय अतिथि थे, फिर भी उनके स्वागत में सरकारी संसाधनों की खुलकर बर्बादी की गई। उस समय मैं डाक एवं तार विभाग में टेलीफोन ऑपरेटर था और मुझे यह जानकर घोर आश्चर्य हुआ कि रैली में विशिष्ट लोगों के लिए बनाए गए मंच के नीचे अस्थायी टेलीफोन कनेक्शन लगाने के आदेश दिए गए—जबकि ऐसी व्यवस्था केवल प्रधानमंत्री के लिए की जाती है। यह घटना सरकारी तंत्र पर संजय गांधी के न केवल अनुचित प्रभाव को दर्शाती है, बल्कि यह बताती है कि कैसे तत्कालीन सरकारी तंत्र को व्यक्तिगत और राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति हेतु काम करने के लिए विवश कर दिया गया था।
ऐसे दौर में जबकि सामान्य जनता के मौलिक अधिकार छीन लिए गए थे, तब जनता के पैसों से किए गए ऐसे दिखावे संविधान की गरिमा के प्रति घोर उपेक्षा और सरकार के नैतिक पतन को दर्शाते हैं। वह भारत में लोकतंत्र के हनन का सबसे बुरा दौर था।
आपातकाल के दौरान संविधान में सरकार के तानाशाही रवैये की पुष्टि करने वाले संशोधन किए गए जिससे लोकतंत्र की आत्मा को गहरी चोट पहुंची और लोकतांत्रिक व्यवस्था के विभिन्न अंगों के बीच असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हुई। संविधान में 38वां संशोधन करके आपातकाल की घोषणा की समीक्षा करने में न्यायालय की भूमिका समाप्त कर दी गई तथा अध्यादेश जारी करने के मामले में राष्ट्रपति व राज्यपाल के अधिकार बढ़ा दिए गए। इसके तुरंत बाद 10 अगस्त 1975 को लागू किए गए 39वें संविधान संशोधन द्वारा से न्यायालयों को प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति एवं लोकसभा अध्यक्ष जैसे उच्च पदों से जुड़े चुनावी मामलों की न्यायिक समीक्षा करने से रोक दिया गया। यह इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा प्रधानमंत्री के विरूद्ध दिए गए निर्णय के बाद श्रीमती गांधी को न्यायालय के प्रति जबावदेही से बचाने की एक सोची-समझी चाल थी। ऐसा करके न्यायपालिका की स्वतंत्रता को जानबूझकर कुचला गया। इस संविधान संशोधन के बाद ‘ए.डी.एम. जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला’ के मामले की काफी चर्चा हुई थी जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों को निलंबित करने के निर्णय को सही ठहराया था। उस मामले में न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना ही अकेले न्यायाधीश थे जिन्होंने उस निर्णय से अपनी असहमति जताई थी और नागरिक स्वतंत्रता का समर्थन किया था। बाद में श्री खन्ना को वरिष्ठतम होने के बावजूद भारत का मुख्य न्यायाधीश नहीं बनाया गया और ऐसा करना न्यायपालिका की गरिमा पर सीधा प्रहार था।
आपातकाल के दौरान श्रीमती गांधी की सत्तालोलुपता का एक दूसरा उदाहरण 42वें संविधान संशोधन करना था जिसके माध्यम से लोकसभा का कार्यकाल पाँच वर्ष से बढ़ाकर छह वर्ष कर दिया गया। ऐसा करके लोकतंत्र में जनादेश की गरिमा को और अधिक कम किया गया और आम चुनाव कराए बिना सरकार के कार्यकाल को बढ़ा दिया गया। इस संशोधन के द्वारा संविधान की उद्देश्यिका में तीन नए शब्द सामाजिक, पंथनिरपेक्ष और अखंडता जोड़े गए और ऐसा करके मूल संविधान से छेड़छाड़ की गई। आपातकाल के दौरान सरकार द्वारा 48 अध्यादेश जारी किए गए और इन्हें पारित करने में संसद में चर्चा, विधेयकों की जांच-पड़ताल और संशोधन करने की प्रक्रिया की अनदेखी की गई। आपातकाल के बाद गठित शाह आयोग ने इतिहास के उन काले दिनों के दौरान ढेर सारे लोगों को बेवजह नजरबंद करने, गरीबों की जबरन नसबंदी करने और सत्ता के संस्थागत रूप से दुरूपयोग की भयावह तस्वीर प्रस्तुत की थी।
इस तानाशाही शासन के दौरान लोकतंत्र के चौथे स्तंभ प्रेस का भी गला घोंटा गया। जो पत्रकार सहानुभूतिपूर्वक विपक्षी नेताओं की ख़बरों को प्रकाशित कर रहे थे उन्हें जेल भेजा गया। महात्मा गांधी द्वारा स्थापित सम्मानित नवजीवन प्रेस को जब्त कर लिया गया, यह स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत पर सीधा हमला था। चार प्रमुख समाचार एजेंसियों—प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया, यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान समाचार और समाचार भारती—को ज़बरदस्ती मिलाकर ‘समाचार’ नामक एक संस्था बना दी गई।
आज, 50 वर्ष बाद, कांग्रेस की दोहरी मानसिकता उजागर हो चुकी है—एक ओर वे ‘संविधान बचाओ यात्रा’ के नाम पर भ्रम फैलाते हैं, दूसरी ओर अपने पूर्वजों द्वारा किए गए संविधान के अपमान पर चुप रहते हैं। श्री राजीव गांधी ने 23 जुलाई 1985 को लोकसभा में भारतीय लोकतंत्र के इतिहास के इस भयावह काले अध्याय के बारे में गर्व से कहा, “आपातकाल में कुछ भी गलत नहीं था।” यह कथन यह दर्शाता है कि कांग्रेस के लिए परिवार और सत्ता सर्वोच्च है।
हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी उस समय मात्र 25 वर्ष के थे, लेकिन उन्होंने साहसपूर्वक इस तानाशाही शासन का विरोध किया। उन्होंने अपनी पहचान छिपाकर अलग-अलग नामों से भूमिगत रहकर गुप्त बैठकों का आयोजन किया और आपातकाल विरोधी साहित्य व पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन एवं वितरण में यत्न से जुटे रहे। जब आरएसएस को प्रतिबंधित कर दिए जाने के कारण इसे भूमिगत होना पड़ा तब मोदी जी ने गुजरात लोक संघर्ष समिति के महासचिव के रूप में लोकतंत्र की रक्षा हेतु अहम भूमिका निभाई।
विगत में संविधान की आत्मा पर किए गए गहरे प्रहार की याद में मोदी सरकार ने 11 जुलाई 2024 को जारी की गई गजट अधिसूचना के माध्यम से 25 जून का दिन ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा की। यह दिन उस विश्वासघात की याद दिलाता है जो आपातकाल के दौरान संविधान के मूल सिद्धांतों के साथ किया गया था। यह प्रत्येक नागरिक को लोकतंत्र का जागरूक प्रहरी बनने की प्रेरणा देता है, ताकि हम इतिहास के उन काले अध्यायों से सीख प्राप्त करें और हम काफी यत्न से प्राप्त की गई स्वतंत्रता के मूल्यों की रक्षा कर सकें।
देश में आपातकाल का काला अध्याय 50 वर्ष पहले समाप्त हो गया है लेकिन वह भयावह दौर हमें इस बात की याद दिलाता है कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए हमें हमेशा सजग प्रहरी बने रहने की आवश्यकता है। हमारा संविधान पीढ़ियों की कुर्बानियों, बुद्धिमत्ता, आशाओं और आकांक्षाओं का परिणाम है। आज जब भारत हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के दूरदर्शी नेतृत्व में ‘विकसित भारत @ 2047’ की ओर अग्रसर है, तो हमें एक जीवंत और विकसित लोकतांत्रिक राष्ट्र के निर्माण हेतु अपने नागरिकों के संकल्प से सामर्थ्य प्राप्त कर राष्ट्र की पवित्रता की रक्षा करने के लिए अपनी प्रतिबद्धताओं को एक बार फिर से दोहराने की आवश्यकता है।
( लेख में व्यक्त लेखक के निजी विचार हैं )