कठिनाइयों में प्रार्थना असरकारक साबित होती है। सप्ताह में कम से कम एक बार प्रार्थना करने वाले 75 प्रतिशत अमेरिकियों का कहना है कि वे बीमारी, उदासी, सदमा व गुस्सा जैसी नकारात्मक स्थितियों और भावनाओं को संभाल लेते हैं। ऐसा करने में वे कैसे कामयाब होते हैं वे यह नहीं बता पाए। यूनिवर्सिटी आफ मैडिसन में समाजशास्त्र की पढ़ाई कर रहे स्नातक विद्यार्थी शेन शार्प ऐसे दर्जनों लोगों के इंटरव्यू लिए जो अपने करीबी व्यक्ति के साथ हिंसक रिश्ते को झेल चुके थे।
उन्होंने बताया कि प्रार्थना करने से उन्हें अपनी स्थिति से मुकाबला करने में मदद मिली। शार्प ने जिन लोगों के इंटरव्यू लिए वे ज्यादातर ईसाई पृष्ठभूमि के थे और विभिन्न भौगोलिक, शैक्षिक व नस्लीय पृष्ठभूमि से संबंध रखते थे। जो लोग बहुत गुस्से में थे उनका कहना था कि उन्हें अपनी बात सुनाने के लिए कोई मिल गया यानी ईश्वर। शार्प ने सोशन साइकोलाजी क्वाटर्ली में अपने अध्ययन के नतीजे लिखे हैं।
शार्प के अनुसार प्रार्थना करने से भावनात्मक कष्टों से राहत पाने में मदद मिलती है। अगर वे अपने निर्दयी साथी के बुरे व्यवहार का उत्तर गुस्से से देते तो हिंसा और बढ़ती। लेकिन वे भगवान पर चिल्ला सकते थे और वह भी बिना हिंसा के भय के। इस बातचीत में लोगों ने यह भी बताया कि वे कैसे सामने वाले की आंखों में देखते थे यानी प्रार्थना करने वाले लोग ईश्वर की दृष्टि की कल्पना करते थे।
शार्प के अनुसार प्रार्थना करते वक्त लोग यह मानकर प्रार्थना करते थे कि भगवान उन्हें देख रहा है। चूंकि यह कल्पना सकारात्मक है, इसलिए इससे उन्हें अपनी कीमत समझने में मदद मिली, यह भावना गाली गलौच करने वाले साथी के बर्ताव से छिन्न भिन्न हो चुकी होती है।
प्रार्थना करने और भगवान से बात करने की क्रिया एक सजीव संपर्क की तरह ही है। किसी वास्तविक व्यक्ति के सामने बैठे बिना आप दूसरे व्यक्ति की कल्पना नहीं कर सकते। लेकिन इससे ईश्वर की भूमिका कमतर नहीं हो जाती कि उसकी कल्पना की जा रही है। इसके विपरीत यह सही है कि भगवान में विश्वास नहीं है तो प्रार्थनाओं का प्रभाव न होता। उनके लिए ईश्वर की सत्ता वास्तविक है।
साभार -योग ध्यान
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