अशोक शर्मा
सितंबर 2023 में संसद ने एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए नारी शक्ति वंदन अधिनियम को मंजूरी दी। इस कानून के तहत लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में 33% सीटें, यानी एक-तिहाई सीटें, महिलाओं के लिए आरक्षित करने का प्रावधान किया गया है। यह कदम देश में लैंगिक समानता और महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को बढ़ाने की दिशा में एक बड़ा प्रयास माना जा रहा है। लेकिन इस कानून को लागू करने की राह इतनी आसान नहीं है। कानून में साफ कहा गया है कि यह आरक्षण तभी लागू होगा, जब देश में जनगणना और उसके बाद विधानसभाओं और लोकसभा क्षेत्रों का परिसीमन पूरा हो जाए। केंद्र सरकार ने हाल ही में घोषणा की है कि अगली जनगणना मार्च 2027 तक पूरी हो जाएगी। इसका मतलब है कि अगर सब कुछ योजना के मुताबिक हुआ, तो 2029 के आम चुनाव से पहले यह आरक्षण लागू हो सकता है। लेकिन इस प्रक्रिया में कई ऐसी चुनौतियां हैं, जिन्हें पार करना केंद्र सरकार के लिए आसान नहीं होगा।
सबसे पहली और बड़ी चुनौती है जनगणना और परिसीमन की प्रक्रिया को समय पर पूरा करना। भारत जैसे विशाल और विविधता से भरे देश में जनगणना करना अपने आप में एक जटिल काम है। पहले के अनुभव बताते हैं कि जनगणना और परिसीमन की प्रक्रिया को पूरा होने में कम से कम दो साल का समय लग सकता है। पहले यह पूरी तरह से कागजी काम था, लेकिन अब डिजिटल तकनीक के इस्तेमाल से इस प्रक्रिया को तेज करने की उम्मीद की जा रही है। फिर भी, यह देखना होगा कि सरकार कितनी कुशलता से इस काम को अंजाम दे पाती है। अगर इसमें देरी हुई, तो 2029 के चुनाव से पहले आरक्षण लागू करना मुश्किल हो जाएगा।
दूसरी और शायद सबसे बड़ी चुनौती है परिसीमन को लेकर राज्यों के बीच मतभेद। परिसीमन का मतलब है विधानसभा और लोकसभा क्षेत्रों की सीमाओं को नए सिरे से तय करना, ताकि जनसंख्या के आधार पर सीटों का बंटवारा हो सके। लेकिन कई राज्य इस प्रक्रिया का विरोध कर रहे हैं। तमिलनाडु, कर्नाटक, तेलंगाना और पंजाब जैसे राज्यों ने इस मुद्दे पर अपनी नाराजगी जाहिर की है। इन राज्यों ने मार्च में चेन्नई में एक सम्मेलन आयोजित किया था, जिसमें उन्होंने परिसीमन के खिलाफ अपनी चिंताएं रखीं। इन राज्यों का कहना है कि मौजूदा व्यवस्था, जो 1971 की जनगणना के आधार पर बनी है, उनके हितों की रक्षा करती है। अगर नई जनगणना के आधार पर परिसीमन हुआ, तो इन राज्यों को डर है कि उनकी सीटें कम हो सकती हैं, क्योंकि दक्षिणी राज्यों में जनसंख्या वृद्धि की दर उत्तर भारत की तुलना में कम रही है। केंद्र सरकार ने इन राज्यों को भरोसा दिलाया है कि उनकी सीटें सुरक्षित रहेंगी, लेकिन इन राज्यों को सहमत करना आसान नहीं होगा। परिसीमन एक ऐसा मुद्दा है, जो न सिर्फ तकनीकी रूप से जटिल है, बल्कि इसमें राजनीतिक हित भी जुड़े हैं। अगर केंद्र और राज्यों के बीच सहमति नहीं बनी, तो यह प्रक्रिया लंबे समय तक अटक सकती है।
तीसरी चुनौती है इस पूरी प्रक्रिया को पारदर्शी और निष्पक्ष तरीके से पूरा करना। परिसीमन का काम न सिर्फ तकनीकी रूप से जटिल है, बल्कि इसमें राजनीतिक दबाव भी शामिल हो सकते हैं। अलग-अलग राजनीतिक दल अपने हितों को ध्यान में रखकर इस प्रक्रिया को प्रभावित करने की कोशिश कर सकते हैं। ऐसे में, केंद्र सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि परिसीमन का काम पूरी तरह से निष्पक्ष और पारदर्शी हो, ताकि किसी भी पक्ष को शिकायत का मौका न मिले। इसके लिए एक मजबूत और स्वतंत्र व्यवस्था की जरूरत होगी, जो इस प्रक्रिया को सही तरीके से लागू कर सके।
महिला आरक्षण को लागू करने में देरी से एक बड़ा सवाल यह भी उठता है कि क्या सरकार इस मुद्दे को लेकर वाकई गंभीर है। 2024 के आम चुनाव के आंकड़े बताते हैं कि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है। उस चुनाव में महिलाओं की मतदान दर 65.8% थी, जो पुरुषों की 65.6% से थोड़ी ज्यादा थी। लेकिन इसके बावजूद संसद में महिलाओं की हिस्सेदारी अभी भी बहुत कम है। यह अंतर बताता है कि सिर्फ कानून बनाना काफी नहीं है, बल्कि उसे समय पर लागू करना भी उतना ही जरूरी है। अगर 2029 के चुनाव से पहले यह आरक्षण लागू नहीं हो पाया, तो यह महिलाओं के साथ एक तरह का अन्याय होगा।
केंद्र सरकार के सामने यह एक बड़ा मौका है कि वह अपनी प्रतिबद्धता को साबित करे। इसके लिए जरूरी है कि जनगणना और परिसीमन की प्रक्रिया को जल्द से जल्द शुरू किया जाए और उसे पारदर्शी तरीके से पूरा किया जाए। साथ ही, राज्यों के साथ बातचीत करके उनके डर और चिंताओं को दूर करना होगा। अगर सरकार इस दिशा में तेजी से कदम उठाती है, तो 2029 के चुनाव में महिलाओं को उनका हक मिल सकता है। लेकिन अगर इस प्रक्रिया में देरी हुई या यह राजनीतिक खींचतान का शिकार हो गई, तो यह न सिर्फ महिला सशक्तिकरण के लिए एक झटका होगा, बल्कि सरकार की मंशा पर भी सवाल उठेंगे। यह समय केंद्र सरकार के लिए अपनी इच्छाशक्ति और कुशलता को साबित करने का है।
( लेख में व्यक्त लेखक के निजी विचार)